Category: रोमांटिक कविता

कविता-‘उम्मीदें’/Kavita-‘Umeeden’

अब फिर से उम्मीदें  बढ़ने लगी हैं  तितलियां जो कमजोर थीं  उड़ने लगी हैं  उमंगों में नईं कोंपलें  फूटने लगी हैं  मायूसी की दीवारें  टूटने लगी हैं  धड़कनें  ग़ज़ल गुनाने लगीं हैं  नई कवितायें  भी समझ आने लगीं हैं  तो क्या  फिर से बहार आई है  तो क्या  फिर से घटा छाई है  बात  समझ

उड़ती बात में आपका स्वागत है.. । welcome in udti baat ।

उड़ती बात में आपका स्वागत है – आज october 17, Monday को मैं, मेरे आराध्य देव, देवाधिदेव 1008 श्री आदिनाथ भगवान के श्री चरणों का सुमिरन करके, उनसे अनुमति ले कर, उनका अलौकिक आशीर्वाद लेकर अपने ब्लॉग https://udtibaat.com पर अपना पहला पोस्ट उड़ती बात में आपका स्वागत है पब्लिश कर रहा हूँ। मेरे कई मित्रों ने

कविता-क्षोभ/kavita-chhobh

  उदारमना, तुम्हें क्षोभ किस बात का मैं तो निर्जन में पनपा एक दुर्बल तनका पौधा हूँ  जो कभी बड़ा ही नहीँ हुआ अभी ढंग से खड़ा भी नहीँ हुआ सदा निराशा में बिंधा चंद टहनियों की जवाबदारियों में बंधा राह तकता हुआ किसी अन्जाम की किसी परिणाम की, यकबयक तुम्हारे प्रकाट्य से जीवन में ढंग आ गया

कविता- हो सके तो /kavita-ho sake to

तुमने कहा  बहकना  ठीक नहीँ  तो फ़िर यूँ  चहकना भी  ठीक नहीँ,  तुम पात्र ही नहीँ  रस पीने के  कुचल क्यों नहीँ देते  अरमान  सब सीने के  देखो,  सतत बनी हुई  एकरसता  रुग्ण कर देती है  बनावटी  सात्विकता  अवसाद भर देती है  गुंजाइश सदा ही होती है  नये पंखों की  नये अंकुर की  लेकिन  पहले तय करो कि 

कविता-मैंने कब कहा/Kavita-Maine kab kaha

मैंने कब कहा  तुम मेहनत से मिले हो  तुम तो अप्रतिम गुलाब हो  ह्रदय की बंजर भूमि पर  नैमत से खिले हो  इसमें बेईमानी क्यों लगती है  तुम्हें गलत बयानी क्यों लगती है  तुम तो सौभाग्य हो  तुम शुभ संयोग हो  अच्छे अच्छे ग्रहों के  तुम मिलन का योग हो  मेरे निकट आये तुम  सचमुच बड़े

रोमांटिक कविता – हुनर/ Romantic poem-hunar

      हुनर        वाह दोस्त  तेरे हुनर के क्या कहने  जब चाहो  जिसकी चाहो  जितनी चाहो  उतनी  पतंग उड़ाओ  ये लाओ  वो लाओ  ये गाओ  वो सुनाओ  हवा चलाओ  आस्मां बनाओ  और  मन भाये तो  ठीक  मन चाहे तो  हाथ छोड़ दो  डोर तोड़ दो  पँतग मरोड़ दो..    ये भी पढ़ें: मुहब्बत का गीत।

कविता-कैक्टस/kavita-Kaiktas

कभी कभी चिंतायें कैकटस हो जाती है नुकीली चुभतीं सी कष्टप्रद पीड़ादायक संताप के रंग में रंगी हुईं स्वतः ही पल्लवित होतीं जाती हैं प्रथम दृष्ट्या ऐसा प्रतीत होता है जैसे, इनका जन्म अकारण ही होता है ये बिन बताये ही आती हैं कदाचित, दृष्टि परिपूर्ण नहीँ है  किंचित रुप से, परिस्थितियाँ वैयक्तिक हो सकती

कविता दोहे-हमजोली/kavita dohe-hamjoli

बूढ़ा पेड़ कनेर का,  पनघट के था पास रोज़ सबेरे मिलन की, करते थे हम आस   मुट्ठी भर के दूब ली, फूल चमेली तीन भेंट में दे के हो गये, बातों में तल्लीन   लोहडी का मेला गये, मंगल का बाजार काका जी की गोलियाँ, भूल गये हो यार   इमली पत्थर पीस के, चटखारे छै सात