कविता-कैक्टस/kavita-Kaiktas

Buy Ebook

cactus-147425_640

कभी कभी चिंतायें
कैकटस हो जाती है
नुकीली
चुभतीं सी
कष्टप्रद
पीड़ादायक
संताप के रंग में
रंगी हुईं
स्वतः ही
पल्लवित
होतीं जाती हैं
प्रथम
दृष्ट्या
ऐसा
प्रतीत होता है
जैसे,
इनका जन्म
अकारण ही
होता है
ये बिन बताये
ही आती हैं

कदाचित,
दृष्टि परिपूर्ण
नहीँ है 
किंचित रुप से,
परिस्थितियाँ
वैयक्तिक
हो सकती है
किंतु,
नियम
नहीँ बदलते,
फिर भी घटनायें
उपेक्षित कर
दी जाती हैं

ग्रास बन जाते हैं
निरीह हो कर
हम सभी
कभी ना कभी
सम्भव हो
तो,
आतुर ना होना
समय से पहले
व्याकुल ना होना
चिंतायें हमें
सीख सिखाती हैं
सुमन की क्यारियां
वसंत में ही मुस्काती हैं

Leave a Reply