अब फिर से उम्मीदें बढ़ने लगी हैं तितलियां जो कमजोर थीं उड़ने लगी हैं उमंगों में नईं कोंपलें फूटने लगी हैं मायूसी की दीवारें टूटने लगी हैं धड़कनें ग़ज़ल गुनाने लगीं हैं नई कवितायें भी समझ आने लगीं हैं तो क्या फिर से बहार आई है तो क्या फिर से घटा छाई है बात समझ
उड़ती बात में आपका स्वागत है – आज october 17, Monday को मैं, मेरे आराध्य देव, देवाधिदेव 1008 श्री आदिनाथ भगवान के श्री चरणों का सुमिरन करके, उनसे अनुमति ले कर, उनका अलौकिक आशीर्वाद लेकर अपने ब्लॉग https://udtibaat.com पर अपना पहला पोस्ट उड़ती बात में आपका स्वागत है पब्लिश कर रहा हूँ। मेरे कई मित्रों ने
उदारमना, तुम्हें क्षोभ किस बात का मैं तो निर्जन में पनपा एक दुर्बल तनका पौधा हूँ जो कभी बड़ा ही नहीँ हुआ अभी ढंग से खड़ा भी नहीँ हुआ सदा निराशा में बिंधा चंद टहनियों की जवाबदारियों में बंधा राह तकता हुआ किसी अन्जाम की किसी परिणाम की, यकबयक तुम्हारे प्रकाट्य से जीवन में ढंग आ गया
तुमने कहा बहकना ठीक नहीँ तो फ़िर यूँ चहकना भी ठीक नहीँ, तुम पात्र ही नहीँ रस पीने के कुचल क्यों नहीँ देते अरमान सब सीने के देखो, सतत बनी हुई एकरसता रुग्ण कर देती है बनावटी सात्विकता अवसाद भर देती है गुंजाइश सदा ही होती है नये पंखों की नये अंकुर की लेकिन पहले तय करो कि
मैंने कब कहा तुम मेहनत से मिले हो तुम तो अप्रतिम गुलाब हो ह्रदय की बंजर भूमि पर नैमत से खिले हो इसमें बेईमानी क्यों लगती है तुम्हें गलत बयानी क्यों लगती है तुम तो सौभाग्य हो तुम शुभ संयोग हो अच्छे अच्छे ग्रहों के तुम मिलन का योग हो मेरे निकट आये तुम सचमुच बड़े
हुनर वाह दोस्त तेरे हुनर के क्या कहने जब चाहो जिसकी चाहो जितनी चाहो उतनी पतंग उड़ाओ ये लाओ वो लाओ ये गाओ वो सुनाओ हवा चलाओ आस्मां बनाओ और मन भाये तो ठीक मन चाहे तो हाथ छोड़ दो डोर तोड़ दो पँतग मरोड़ दो.. ये भी पढ़ें: मुहब्बत का गीत।
कभी कभी चिंतायें कैकटस हो जाती है नुकीली चुभतीं सी कष्टप्रद पीड़ादायक संताप के रंग में रंगी हुईं स्वतः ही पल्लवित होतीं जाती हैं प्रथम दृष्ट्या ऐसा प्रतीत होता है जैसे, इनका जन्म अकारण ही होता है ये बिन बताये ही आती हैं कदाचित, दृष्टि परिपूर्ण नहीँ है किंचित रुप से, परिस्थितियाँ वैयक्तिक हो सकती
बूढ़ा पेड़ कनेर का, पनघट के था पास रोज़ सबेरे मिलन की, करते थे हम आस मुट्ठी भर के दूब ली, फूल चमेली तीन भेंट में दे के हो गये, बातों में तल्लीन लोहडी का मेला गये, मंगल का बाजार काका जी की गोलियाँ, भूल गये हो यार इमली पत्थर पीस के, चटखारे छै सात