कविता -सती सीता की व्यथा/Kavita -sati Seeta ki vyatha

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आज मैं गाऊँ एक कहानी सच्ची तुम्हें सुनाऊं 
थी राजकुमारी एक पिता मिथलेश
शील और त्याग की गाथा गाऊँ
सीता था उसका नाम गुणों की खान,
थी सुन्दर उसकी काया
थी रूप की चर्चा दूर बुद्धि भरपूर,
थी धरती माता उसकी जाया

 

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थी जनक को चिंता बड़ी घड़ी और घड़ी,
कि बिटिया बड़ी हो गई 
अब कहाँ से ढूंढू माई मैं योग्य जमाई ,
रातों की नींद पिता की खो गई
गुरुदेव के पंहुचे द्वार लगाई गुहार,
ऐ राजन चिंता छोड़ो 
तुम रचो स्वयंवर बड़ा कड़े से कड़ा,
निमंत्रण सब राजों को भेजो
फिर हुई परीक्षा कठिन किये सब जतन,
धनुष को उठा ना पाये 
श्री राम एक बलवंत धनुष को तुरंत,
तोड़कर सीता को वर लाये
सीता पंहुचीं ससुराल पति के द्वार,
ख़ुशी से हुइ अगवानी 
सब महल में सरल सुजान पति भी महान,
सीता तो फूली नहीं समानी
फिर हुई घोषणा एक राज्य अभिषेक,
राम का होने वाला 
पर कर्म का क्रूर विधान तीन वरदान,
दिखाया उनने खेल निराला
मेरे भरत को होगा राज राम वनवास,
हाँ चौदह साल का होगा 
लिया राम ने मन में ठान वचन की आन,
होगा माँ निश्चय ऐसा होगा

 

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फिर मचा बड़ा कोहराम राम हे राम,
कि हम भी साथ चलेंगे 
सीता के सपने चूर राम हों दूर,
विरह की पीड़ा नहीं सहेंगे
मेरे पति रहें वनवास सहें वो त्रास,
मैं महलों में रह जाऊं 
वो खायें सूखे फल या केवल जल,
मैं छप्पन व्यंजन भोग लगाऊं
फूलों सा कोमल तन था कोमल मन,
राम संग वन वन भटकीं 
जहाँ मेरे हृदय वासी वहीँ दासी,
वो करतीं नित्य ही सेवा पति की
इक रावण लंका पति महा अधिपति,
शत्रुता राम से हो गई 
कर लाया सीता हरण देख लावण्य,
मति रावण की कुंद सी हो गई
करूँ सीता से मैं व्याह थी मन में चाह,
बड़ी है सुन्दर नारी 
है एक अकेली नार वक्त दुश्वार,
माननी पड़ेगी बात हमारी
है राम बड़ा वेअक्ल मामुली शक्ल,
बेदख़ल राज्य से है वो 
मेरा स्वर्गों पर है राज सैन्य और साज,
करेगा तुलना मेरी क्या वो
रावण था मद में चूर प्रवत्ती क्रूर,
लगा सीधा धमकाने 
सीता ने किया विरोध आ गया क्रोध,
राम की शक्ति नहीं तू जाने
तू वापिस कदम ले खींच अधम ओ नीच,
तुझे क़ुछ लाज ना आई 
मेरी पति हैं मेरे ईश उन्हीं से प्रीत,
कि हम हैं एक पतिव्रता नारी
फिर हुआ विकट ही युद्ध राम थे क्रुद्ध,
मृत्यु रावण की हो गई 
सीता से हुआ मिलाप मिटा संताप,
चहुँ दिशि खुशियाँ खुशियाँ हो गईं
तभी ख़त्म हुआ वनवास आई अब याद,
राम घर वापिस लौटे 
सबने ली चैन की सांस ख़त्म हुए आज,
खेल किस्मत के काले खोटे
तब ही इक नया बवाल भाग्य की चाल,
सवाल ये सामने आये 
रही एक अकेली नार दूजे घर द्वार,
राम जी बिन सोचे अपनाये
था लोक लाज का भय, है कुछ संशय
तो निर्णय प्रजा सुनाये
कुछ उठीं दबीं आवाज आग से आज,
निकल कर सीता जी दिखलायें
सीता भी रह गईं सन्न टूट गया मन,
कैसी अपमान की ज्वाला 
मेरे चरित पै है लांछन हैं वो भी मौन,
जिसे डाली मैंने वरमाला
मेरा छला गया विश्वाश छोड़ गया साथ,
साथ में चलने वाला 
अब जीवन है बेअर्थ हुआ है अनर्थ,
राम ये तुमने क्या कर डाला
तुम देते मेरा साथ करते विश्वाश,
मैं उपकृत धन्य हो जाती 
क्या अग्नि परीक्षा चीज़ मेरे मनमीत,
ख़ुशी से मैं यूँ ही मर जाती
ये ज़मीं अभी फट जाय गगन गिर जाय,
कि बिजली गड़ गड़ गिर गई 
है अंधकार चहुँ ओर विपति घनघोर,
राम की प्रीती बिल्कुल मर गई
फिर हुई परीक्षा कड़ी सुरक्षित सती,
फूल बन गए अंगारे 
थी राम की ख़ुशी अपार हुई जयकार,
कोई सीता का दुःख ना जाने
सीता ने पुकारा माँ कहाँ हो माँ,
अब नहीं मन जीने का 
किस्मत ने ढाया कहर ज़हर ही ज़हर,
हौसला बचा नहीं पीने का
शुरू हुई धरती फटनी एक जननी,
बेटी के सामने आई 
आ जाओ मेरी बेटी माँ थी रोती,
सीता जा धरती बीच समानी
सीता थीं शीलवती राम थे पति
बड़ा था सुन्दर जोड़ा 
यह उनकी मौलिक कथा, कथा या व्यथा,
ये हमने राम भरोसे छोड़ा

																				
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