गंगा नदी पर कविता/Ganga nadi par kavita

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कैसे पावन गँगा का इस धरती पर अवतरण हुआ
कैसे थे वो भागीरथ परमार्थ का ऊँचा गगन छुआ 

इक्ष्वाकु कुल के वंशज श्री राम के विरले पूर्वज थे
परम प्रतापी सगर नाम के राजा एक अपूरब थे 

दिकशासन की इच्छा थी मैं चक्रवर्ती सम्राट बनूं
क्यों ना अश्वमेघ करवाऊं कुल शासन जयवन्त करूं 

हुआ महाआयोजन अश्वमेध की जय जयकार हुई
हुई शुरू दिग्विजय यात्रा विकट अश्व हुंकार हुई 

सठहजार सुत राजा के अभियान अश्व में निकले थे
मद में चूर महाबलशाली महाविजय को मचले थे 

एक दिवस ऋषि श्रेष्ठ कपिल का आश्रम राह में आया था
ध्यानमगन मुनि थे उनसे सत्कार उचित ना पाया था 

विकट किया उत्पात आश्रम तहस नहस चहुंओर किया
दमन किया अपमान किया फिर धृष्ट नाद घनघोर किया 

ध्यान टूटता है ऋषिवर का क्रुद्ध हुये चिंघाड़ उठी
मद में चूर शूर पुत्रों पर तप अग्नि भभकार उठी 

भभक उठी फिर लप लप लपटें प्रलयंकारी तेज उठा
भस्मीभूत राजवंशी सब हुये गगन तक उठा धुआँ 

हो दु:स्वप्न प्रलय में परिणित कौंध कहर बन आया काल
सहस्रषष्ठ सुत सगर राज के कवलित हुये काल के गाल 

दारुणता हो गई सुमेरु पीर बही दुख हुआ अपार
व्यथा हुई नासूर शूर की असहनीय हुआ पीड़ा भार 

हो स्तब्ध सुना सब वर्णन वज्राघात सहा ना जाय
कितना सहें कहें अब किसको हे शम्भू यह कैसा न्याय 

कपिल ऋषि की शरण में जाके पूछा फिर कोई उपचार
कैसे मिले शांति अंशों को कैसे हो इनका उद्धार 

तप की अग्नि से सब भस्म हुये हैं राजन सुत तेरे
कोई भी सरयू न धरा पर जो काटे दुष्कर्म घने 

केवल मात्र हिमालय पुत्री देवी गँगा की लहरें
इन्हें मुक्ति देना इस जग में केवल उनके है वश में 

ओम पुकारो तप को जाओ ब्रम्हा जी को याद करो
लिये कमंडल में गंगाजल नीरज पथ निर्बाध करो 

राजा हुए प्रसन्न ठान कर उठे धन्य कर लूँगा राज़
गंगा वंदन सुख संवर्धन ही अब होगा मेरा काज 

परम पूज्य आनँद रुप माँ गंगे तुम्हें मनाऊंगा
कर के जप तप तुम्हें हिमालय से धरती पर लाऊँगा 

ब्रम्हा जी को कर प्रसन्न वरदान में गँगा लेनी थी
गंगा की अमृत धारा से सुतों को मुक्ति देनी थी 

सौंप राज सब अंशुमान को जो अंतिम पुत्र थे शेष
करी तपस्या छोड़ लेश्या त्याग दिये सब कल्मष क्लेश 

घोर किया जप तप वंदन पर ब्रम्हा नहीँ प्रसन्न हुये
पितृ इच्छा से अंशुमान भी तपोध्यान आसन्न हुये 

इसी श्रंखला में पौत्र श्री राजा दिलीप चंद्र आये
कुल की शांति हेतु तपस्या ब्रम्हा की करने आये 

बाद सगर के इक परपौत्र जो भागीरथ जी कहलाये
कुल पूर्वज सम्मान के हेतु राज पाट सब तज आये 

राजा सगर के पुत्रों का बलिदान व्यर्थ ना जायेगा
गँगा माँ का जल कल-कल करता धरती पर आयेगा 

अँगूठे पर अविचल खड़े हुये फिर करी तपस्या खूब
हुए प्रसन्न ब्रम्ह जी आये मांगो तुम वरदान अनूप 

प्रभुवर हमको गंगा देदो भक्तों का कल्याण करो
युगों युगों तक मुक्ति वाले उपक्रम का निर्माण करो

वत्स तुम्हें परहेतु देवीका गंगा तो मिल जायेगी
किंतु वेग विकट है जल का धरती झेल ना पायेगी 

तुम शिव शम्भू को आराधो वो ही कुछ कर पायेंगे
गंगा पॄथ्वी पर लाने का वो उपाय बतलायेंगे 

फिर छेड़ी इक मुहिम तपस्या शंकर जी की कर डाली
भोले तो भोले हैं आखिर कर ली उनने तैयारी 

जटा जूट सब खोल हुये तैयार आओ गंगा देवी
मेरे मस्तक आँन विराजो कर प्रयाण जाओ देवी 

गंगा जी सुरलोक की सरयू चैन अमन से बहती थीं
आनंदित थी रमी हुई थीं सुख का अनुभव करती थीं 

बड़ी अनिच्छा से निकली सम्पूर्ण प्रवाह बढ़ाया था
शिव जी वेग ना सह पायेंगे भाव ह्रदय में आया था 

शिव शम्भू तो अंतर्यामी दर्प गंग का जान लिये
गंगा तो सर पर ले ली पर केश जटायें बाँध लिये 

एक बूँद ना बाहर निकली कैद हो गई जलराशी
जब विनती की गंगा ने तब एक जटा दी झटकारी 

अतुल वेग से गंगा निकली धरती की ली दिशा पकड़
राह पड़ा ऋषि जह्वण आश्रम बहा ले गई उमड़ गुमड़ 

ऋषि क्रोध में आकर पी गये पल में ही गंगा सारी
करी प्रार्थना भागीरथ ने गँगा जी भी पछताईं 

रिहा किया तबसे ही गँगा जाह्न्वी जी कहलाईं
परम तपस्वी भागीरथ से भागीरथी हुईं नामी 

गँगा जल जब हुआ समर्पण सठसहस्र भव पार हुये
नृप श्री सगर के भस्म सुतों के पल भर में उद्धार हुए 

कृत उपकृत हो गई धरा युग युग ने गाथा गाई है
पुण्यसलिल गँगा में युगों युगों ने मुक्ति पाई है 

विरल है ऐसी करुणा अद्भुत ह्रदय, वेदना सम्वेदन
जनहित में निजहेतु त्यागकर आहुति किया पूर्ण जीवन 

ध्येय पुनीत हों प्रण हों ‘मौलिक’ नभ भी शीश झुकाता है
गँगा जैसी नदियों का भी वेग धरा पर आता है।। 

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