February 16, 2016
कविता-कल की खातिर/kavita-kal Ki khatir
अनगढ़ सपनों की खातिर
सुख चैन झोंकते जाते हो
कल की खातिर वर्तमान का
गला घोंटते जाते हो!
जो बीता बो बृस्मित कर दो
याद ना करना मत ढोना
चाहे बिष था या अमृत था
ना खुश होना-ना रोना
इक इक पल का लुफ़्त उठाओ
यह क्षण लौट ना आयेगा
आज जिसे तुम छोड़ रहे हो
वो अतीत बन जायेगा
बदहवास से तितरे-वितरे
साँस धौंकते जाते हो
कल की खातिर वर्तमान का
गला घोंटते जाते हो!
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दिन मस्ताने आयेंगे कब
शाम सुहानी आयेगी
खूं जब बन जायेगा पानी
मधुरितु नहीं सुहायेगी
यौवन और जवानी का रंग
फीका पड़ता जाता है
ज्यों अंजुल में भरा नीर
धीरे धीरे झर जाता है
दरिया के अविरल प्रवाह की
राह रोकते जाते हो
कल की खातिर वर्तमान का
गला घोंटते जाते हो!
थोड़ा रुको ज़रा ठहरो तो
लम्बी साँसें अंदर लो
खुलकर हंसो-हंसो खुल जाओ
बाँहों में खुशियाँ भर लो
आज का दिन ही मिला है ‘मौलिक’
समझौतों से लड़ जाओ
सारे नियम तोड़ दो यारा
आसमान में उड़ जाओ
वक्त नहीं है-वक्त नहीं है
गा-गा बहुत बताते हो
कल की खातिर वर्तमान का
गला घोंटते जाते हो!