-Love Poem- दिल से दिल तक जब नभ की अगुणित सीमायें शीतल शशिमय हो जाती हैं जब धरा हिमालय से उठकर स्वागत में मलय चलाती है तब ऐसा क्या कुछ होता है हर बात सुखद हो जाती है तब ऐसा क्यों कुछ होता है सौगात सहज हो जाती है जब खुशी मौज सी मचल उठे
Love poem-मोह हाँ शायद, मैं नही जानता और कैसे जानूँ तुमने ह्रदय पट ही नही खोले बहुत कुछ कहा होगा कहा है मगर कुछ भी तो नहीं बोले मंदाकिनी हो तो बहती भी होगी किन्तु क्षमा करना दायरों में ही रहती होगी तो आस का क्या वो तो टूटेगी अब तुम्हीं बताओ टूटन में क्या
‘कौन है’ कंपकंपाती भौंहें थरथराता ललाट नशीली आँखें मुंदी पलकें पलकों की बेसुध कोरें कोरों में नमी नमी में तसव्वुर तसव्वुर में मुस्कराता कौन है जो मौन है सघन-घने सुरमई गेसू गेसुओं की चन्द उन्मत्त लटें टोली से बाहर विद्रोह कर उतर आती हैं कपोलों पर किलोलें करने कपोलों पर लज़्ज़ा जहाँ फैली है हया
। तुम्हारा प्यार । ये तुम्हारा प्यार मुझमें, मिश्री की तरह घुल रहा है आतुरता और संशय के बीच कुछ तौल रहा है तुल रहा है पगडंडी निर्मित हो रही है निर्मल घट से अंतस पट तक सरयू बहने को उत्सुक है नेह निलय से ह्रदय तट तक माना कि अदृश्य है
पहले प्यार पर कविता – कहते हैं कि तमाम दुनिया मे ऐसा कोई भी नहीं होगा जिसे कभी किसी से प्यार न हुआ हो। सच तो यह है कि लड़कपन की उम्र से ही दिल किसी न किसी के लिये धड़कना शुरू कर देता है। कोई यह कहे कि उसे कभी किसी से प्यार नहीं हुआ तो
गोरी से होरी कैसे हो, हफ़्तों के ताने-बानों को रंगों की पुड़ियाँ हाथों में, ले आस हुमक अरमानों को मौके तकना तक तक थकना, हड़बड़ियों में वो गड़बड़ियां कैसे भूलें वो दिन गोरी, कैसे होली की बातों को गोरी के गुलाबी गालों को, गालों पर बिखरे बालों को वो छज़्ज़े वाली खिड़की को,
जुदाई की कविता – किसी से प्यार हो जाये, बेतहाशा हो जाये और वही हमसे ज़ुदा हो जाये, इससे ज़्यादा ग़मगीन करने वाली बात मोहब्बत करने वालों के लिये दूसरी नहीं हो सकती। आज की यह कविता जुदाई की कविता एक ऐसी दर्द भरी कविता है, एक ऐसी प्यार में सॉरी बोलने की कविता है, प्यार में
मोहब्बत का गीत – इश्क़ से तरबतर दिलों के लिये प्रस्तुत है गम और नासाज़ी से भरा आर्टिकल मोहब्बत का गीत । आशा है कि आप सबको पसंद आयेगा। मोहब्बत का गीत फिर वही ख़्वाब सपना कहानी हुई फिर वहीँ से शुरू ज़िन्दगानी हुई फिर वही बेबसी तू वहाँ मैं यहाँ मैं दीवाना हुआ तू दिवानी हुई।
मावठे की ठिठुरन में ताज़ा ताज़ा जवां हुई एक नव यौवना ओस की बूँद उमंग में लहकती बहकती ठिठकती लुढ़कती संभलती अपनी आश्रय दाता जूही की एक पत्ती से लड़याती इठलाती इतराती बतियाती पूछती है- तुम्हें चिड़चिड़ाहट नहीं होती ऐसा स्थिर जीवन बिताने में कोई घबराहट नहीं होती क्या तुम्हें नहीं भाते झरनों
इसको महज़ चुहल ना समझो यह नेहा की पाती तुमसे लगन अगन बन गइ है दिन रैना तड़पाती अंक तुम्हारे जिऊँ मरू मैं स्वांस तेरी बन जाऊं मेरी आरजू पूरी कर दो तड़पत ना मर जाऊं सह ना सकूँ बिरह की पीड़ा हुमक रुलाई आवे किससे कहूँ दर्द मैं दिल कौन समझ में आवे पर्वत