ग़ज़ल ‘कतरनें । Gazal ‘katrane’

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आतिश थी बेपनाह शमां ने फ़ना किया
परवाने जल गए हैं इबादत किये वगैर

सुलगी थी रूह अब्र में उड़ता रहा धुआँ
दीवाने जल गये हैं मुहब्बत किये वगैर

बे-होश रहीं आँखें घटा झूम के गिरी
आंसू हथेलियों पै गिरे नीर के वगैर

बांधे थे साथ हमने जहाँ मन्नतों के तार
चुपचाप तोड़ आया शिकायत किये वगैर

मैं झील सा बंधा रहा साहिल की हद लिए
सैलाब सी बही वो इज़ाज़त लिए वगैर

रेशम की ताग लेकर दुआ आई तो मगर
पलकों से बह गई है इनायत किये वगैर

मज़मून में ख़लिश सी उठी चुन्नटें लिये
ख़त उसके सौंप आया मलामत किये वगैर

लम्हात में ही कतरनें ख़्वाबों की उड़ गईं
सारी समेट लाया तिजारत किये वगैर

ग़फ़लत में थे अदीब ख़फ़ा मुद्दतों रहे
इस्बात हुये फ़ाश गवाहात के वग़ैर

कैसे करूँ गुरेज़ मैं मौलिक ज़माल से
इख़्लास है उरूज़ ज़ियारत किये वग़ैर

*आतिश (आग), फ़ना (गुज़र जाना),

 अब्र (आसमान), साहिल (किनारा), 

सैलाब (बाढ़), ताग (धागा), 

मज़मून (लिखा हुआ), 

ख़लिश(चुभन), चुन्नटें (तह), 

मलामत (बिना कुछ कहे), 

तिज़ारत (बिना शोरगुल के),

ग़फ़लत (ग़लतफ़हमी), 

अदीब (ख़ास, बड़े लोग),

इस्बात (सबूत, प्रमाण),

फ़ाश (बेनक़ाब, झूठे साबित),

 गवाहात (गवाही देने वाले), 

गुरेज़ (दूर रहना परहेज़), 

 मौलिक ज़माल (नूर, बेइंतहा खूबसूरती), 

इख़्लास (प्रेम, लगाव), 

 उरूज़ (नूर से भरना, पवित्र), 

ज़ियारत (खुदा का नाम लिए बिना)

 

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