कविता- ‘कृष्ण मेरे आओ’/Kavita- ‘Krishna mere aao’

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वह कदम्ब का पण स्पंदन, सावन सी छाया
वह पुष्पों के कुंज निकुँजों, की मनभावन माया।

वह जमुना का अमृत सा जल, लहर लहर बंतियाँ
वह बौराई अनुपम सुन्दर, गोकुल की सखियां।

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भले नहीँ वो युग आये पर, आप चले आओ
हो सम्भव तो पुनः धरा पर, कृष्ण मेरे आओ।

वह उद्धिग्न हो दिन का, गोवर्धन में खो जाना 
श्याम सांवरे के रंग ढंग में, श्यामल हो जाना।

कुहुक कुहुक कोयल भी आये, गाये गीत नये 
राधा जी के संग आयेंगे, मुरलीघर मेरे।

अमृत सी बरसाने वाली, रास रचा जाओ 
हो सम्भव तो पुनः धरा पर, कृष्ण मेरे आओ।

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उपकृत हो अमलार्जुन नें, प्रभु पग प्रक्षाल किया 
कृत कृत हुई पूतना आँचल, से विषपान किया।

निर्लज्जौ के बीच द्रौपदी, का सम्मान रखा 
त्रिपुरारी होकर भी सुदामा, के कहलाये सखा।

वही हिमालय जैसी करुणा, फिर से दिखलाओ 
हो सम्भव तो पुनः धरा पर, कृष्ण मेरे आओ।

सब कुछ था संज्ञान जान कर, भी अंजान रहे 
मात यशोदा की ममता को, अनुपम मान दिये।

मंद मंद मुस्काकर नंद, सुने सब मनुहारें 
गोकुल मुग्ध हुआ सुनकर के, बंशी की तानें।

थोड़ी प्रेम सुधा की वर्षा, हम पर करजाओ 
हो सम्भव तो पुनः धरा पर, कृष्ण मेरे आओ।

प्रेम-प्रेम और प्रेम फुहारें, नस नस उड़ा धुँवा
रासबिहारी तुमसा जग में, दूजा नहीँ हुआ।

ललिता कमला शुभा नंदिनी, नेह भरी राधा
सब के प्रिये जिये शुचिता से, मौलिक प्रभु माया।

कुछ क़तरे निश्छलता के, हम पर भी बरसाओ
हो सम्भव तो पुनः धरा पर, कृष्ण मेरे आओ।

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