कविता- हो सके तो /kavita-ho sake to
तुमने कहा
बहकना
ठीक नहीँ
तो फ़िर यूँ
चहकना भी
ठीक नहीँ,
तुम पात्र ही नहीँ
रस पीने के
कुचल क्यों नहीँ देते
अरमान
सब सीने के
देखो,
सतत बनी हुई
एकरसता
रुग्ण कर देती है
बनावटी
सात्विकता
अवसाद भर देती है
गुंजाइश
सदा ही होती है
नये पंखों की
नये अंकुर की
लेकिन
पहले तय करो कि
छटपटाहट कितनी है,
उड़ना तो चाहते हैं
चहचहाहट कितनी है
यकीन जानो, अंतर्द्वंद
तुम्हारे साथ ही नहीँ
सारा जहान
स्वयं से
द्वन्द कर रहा है
तिल तिल ही सही
पर मर रहा है
विवशता की
ढेरों रेखायें
भयभीत करतीं हैं
ये सही है
ये नहीँ है
जानें क्या कुछ
थोपी गईं
रीत कहतीं हैं,
यहाँ,
सहूलियत ही
बड़ा मसला है
अन्यथा सब
नियम के पक्के हैं
सब ही तो सच्चे हैं
सुगमता तो
एक नैमत है
अच्छे से पहचानो
आँखे खोलो
अब तो जानो
जी सको तो जी लो
इतना ना तौलो
इस मसले पर
बहुत बात हो चुकी
हो सके तो
अब कुछ ना बोलो