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कविता- हो सके तो /kavita-ho sake to

तुमने कहा  बहकना  ठीक नहीँ  तो फ़िर यूँ  चहकना भी  ठीक नहीँ,  तुम पात्र ही नहीँ  रस पीने के  कुचल क्यों नहीँ देते  अरमान  सब सीने के  देखो,  सतत बनी हुई  एकरसता  रुग्ण कर देती है  बनावटी  सात्विकता  अवसाद भर देती है  गुंजाइश सदा ही होती है  नये पंखों की  नये अंकुर की  लेकिन  पहले तय करो कि 

कविता-कैक्टस/kavita-Kaiktas

कभी कभी चिंतायें कैकटस हो जाती है नुकीली चुभतीं सी कष्टप्रद पीड़ादायक संताप के रंग में रंगी हुईं स्वतः ही पल्लवित होतीं जाती हैं प्रथम दृष्ट्या ऐसा प्रतीत होता है जैसे, इनका जन्म अकारण ही होता है ये बिन बताये ही आती हैं कदाचित, दृष्टि परिपूर्ण नहीँ है  किंचित रुप से, परिस्थितियाँ वैयक्तिक हो सकती