अनगढ़ सपनों की खातिर सुख चैन झोंकते जाते हो कल की खातिर वर्तमान का गला घोंटते जाते हो! जो बीता बो बृस्मित कर दो याद ना करना मत ढोना चाहे बिष था या अमृत था ना खुश होना-ना रोना इक इक पल का लुफ़्त उठाओ यह क्षण लौट ना आयेगा आज जिसे तुम
ग़ज़ल तेरे रुख़सार की रंगत गुलाब देखेंगे छलकता नूर सुबह शाम आब देखेंगे इक यही ख्वाब है दीदार तेरा हो जाये हमें हक है कि हम भी माहताब देखेंगे मैं जिद भी करता हूँ तो एक बार करता हूँ तुम्हे मिलता या हमें आफ़ताब देखेंगे हमारे इश्क को ‘मौलिक’ मजाक ना समझो वो हम ही
गीत तेरी मेहरबानी किसके लिये तेरी कदरदानी किसके लिये कोई तो होगा मीत तेरा शाम सुहानी किसके लिये बात नहीं कुछ आस नहीं कुछ खोने को अब पास नहीं कुछ यूँ ही परेशां रहता हूँ मैं तो तुझसे मुहब्बत ख़ास नहीं कुछ प्रेम कहानी किसके लिये ये मनमानी किसके लिये कोई
शेरों सी हुंकार हुई है, तब जा के जयकार हुई दुश्मन को जब जब ललकारा, तब तब उसकी हार हुई अब ना कोई रोशनी चाहिये अब तो सूरज ले लेंगे लहरों से भिड़ जायेंगे हम अंगारों से खेलेंगे थर-थर कापेंगा अब दुश्मन ली हमने अंगड़ाई है गला काट देंगे हम छल का सच की