October 29, 2016
कविता-‘उम्मीदें’/Kavita-‘Umeeden’
अब फिर से उम्मीदें
बढ़ने लगी हैं
तितलियां जो कमजोर थीं
उड़ने लगी हैं
उमंगों में नईं कोंपलें
फूटने लगी हैं
मायूसी की दीवारें
टूटने लगी हैं
धड़कनें
ग़ज़ल गुनाने लगीं हैं
नई कवितायें
भी समझ आने लगीं हैं
तो क्या
फिर से बहार आई है
तो क्या
फिर से घटा छाई है
बात
समझ नहीं आई है
हाँ, तुम्हारे आने की
ख़बर ज़रूर आई है
आसान थी राह
नहीं पता
था सफ़र दुश्वार
नहीं पता
पर मैं चलता जाता
तो मंज़िल निश्चित थी
हौसला कर पाता
तो मुलाकात पक्की थी
शायद किस्मत की रेखा में
राहु का योग था
क़ुछ अरसे के बाद ही
मिलन का संयोग था ।