March 1, 2016
					    							
												कविता-कैक्टस/kavita-Kaiktas


कभी कभी चिंतायें 
कैकटस हो जाती है 
नुकीली 
चुभतीं सी 
कष्टप्रद 
पीड़ादायक 
संताप के रंग में 
रंगी हुईं 
स्वतः ही 
पल्लवित 
होतीं जाती हैं 
प्रथम 
दृष्ट्या 
ऐसा 
प्रतीत होता है 
जैसे, 
इनका जन्म 
अकारण ही 
होता है 
ये बिन बताये 
ही आती हैं
कदाचित, 
दृष्टि परिपूर्ण 
नहीँ है 
किंचित रुप से, 
परिस्थितियाँ 
वैयक्तिक 
हो सकती है 
किंतु, 
नियम 
नहीँ बदलते, 
फिर भी घटनायें 
उपेक्षित कर 
दी जाती हैं
ग्रास बन जाते हैं 
निरीह हो कर 
हम सभी 
कभी ना कभी 
सम्भव हो 
तो, 
आतुर ना होना 
समय से पहले 
व्याकुल ना होना 
चिंतायें हमें 
सीख सिखाती हैं 
सुमन की क्यारियां 
वसंत में ही मुस्काती हैं

 
																							 
																							 
																							