September 28, 2016
कविता-क्षोभ/kavita-chhobh
उदारमना,
तुम्हें क्षोभ किस बात का
मैं तो निर्जन में पनपा
एक दुर्बल तनका पौधा हूँ
जो कभी बड़ा ही नहीँ हुआ
अभी ढंग से
खड़ा भी नहीँ हुआ
सदा निराशा में बिंधा
चंद टहनियों की
जवाबदारियों में बंधा
राह तकता हुआ
किसी अन्जाम की
किसी परिणाम की,
यकबयक तुम्हारे
प्रकाट्य से
जीवन में ढंग आ गया
जैसे खुशियों में रंग आ गया
तुम सरयू की भाँति आईं
कल कल करके इतराईं,
तो सब कुछ ही
अद्भुतरम्य हो गया
उत्साहजन्य हो गया
इस आशा में कि
अपार जलराशि में से
एक क्षीण धारा भी
मुझ तुच्छ को
स्निग्धता से नहला देती
जर्जरता को सहला देती
तो टहनी टहनी खिल जाती
फ़िर धारा भले आगे बढ़ जाये
अस्तित्व को सार्थकता मिल जाती
तुम्हें क्षोभ किस बात का
मैं तो निर्जन में पनपा
एक दुर्बल तनका पौधा हूँ
जो कभी बड़ा ही नहीँ हुआ
अभी ढंग से
खड़ा भी नहीँ हुआ
सदा निराशा में बिंधा
चंद टहनियों की
जवाबदारियों में बंधा
राह तकता हुआ
किसी अन्जाम की
किसी परिणाम की,
यकबयक तुम्हारे
प्रकाट्य से
जीवन में ढंग आ गया
जैसे खुशियों में रंग आ गया
तुम सरयू की भाँति आईं
कल कल करके इतराईं,
तो सब कुछ ही
अद्भुतरम्य हो गया
उत्साहजन्य हो गया
इस आशा में कि
अपार जलराशि में से
एक क्षीण धारा भी
मुझ तुच्छ को
स्निग्धता से नहला देती
जर्जरता को सहला देती
तो टहनी टहनी खिल जाती
फ़िर धारा भले आगे बढ़ जाये
अस्तित्व को सार्थकता मिल जाती