September 28, 2016
कविता- हो सके तो /kavita-ho sake to
तुमने कहा बहकना ठीक नहीँ तो फ़िर यूँ चहकना भी ठीक नहीँ, तुम पात्र ही नहीँ रस पीने के कुचल क्यों नहीँ देते अरमान सब सीने के देखो, सतत बनी हुई एकरसता रुग्ण कर देती है बनावटी सात्विकता अवसाद भर देती है गुंजाइश सदा ही होती है नये पंखों की नये अंकुर की लेकिन पहले तय करो कि