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कविता-‘उम्मीदें’/Kavita-‘Umeeden’

अब फिर से उम्मीदें  बढ़ने लगी हैं  तितलियां जो कमजोर थीं  उड़ने लगी हैं  उमंगों में नईं कोंपलें  फूटने लगी हैं  मायूसी की दीवारें  टूटने लगी हैं  धड़कनें  ग़ज़ल गुनाने लगीं हैं  नई कवितायें  भी समझ आने लगीं हैं  तो क्या  फिर से बहार आई है  तो क्या  फिर से घटा छाई है  बात  समझ

कविता-क्षोभ/kavita-chhobh

  उदारमना, तुम्हें क्षोभ किस बात का मैं तो निर्जन में पनपा एक दुर्बल तनका पौधा हूँ  जो कभी बड़ा ही नहीँ हुआ अभी ढंग से खड़ा भी नहीँ हुआ सदा निराशा में बिंधा चंद टहनियों की जवाबदारियों में बंधा राह तकता हुआ किसी अन्जाम की किसी परिणाम की, यकबयक तुम्हारे प्रकाट्य से जीवन में ढंग आ गया