February 3, 2016
ग़ज़ल ‘रंगत’/Gazal ‘Rangat’
ग़ज़ल
तेरे रुख़सार की रंगत गुलाब देखेंगे
छलकता नूर सुबह शाम आब देखेंगे
छलकता नूर सुबह शाम आब देखेंगे
इक यही ख्वाब है दीदार तेरा हो जाये
हमें हक है कि हम भी माहताब देखेंगे
मैं जिद भी करता हूँ तो एक बार करता हूँ
तुम्हे मिलता या हमें आफ़ताब देखेंगे
हमारे इश्क को ‘मौलिक’ मजाक ना समझो
वो हम ही हैं जो, उठाकर नकाब देखेंगे
ग़ज़ल
अकेला हूँ मैं हाथ दो तो जरा
जिंदगी ऐ मेरी साथ दो तो जरा
आर हूँ पार हूँ मैं यहाँ से वहाँ,
खुश्क सी है जमीं तंग सा आस्मां
महफिलें सज गईं आज तन्हाई में,
मैं पशेमां रहा हँस पड़ा कहक़शा
रौनके जुस्तजू आज कर लूँ ज़रा
जिंदगी ऐ मेरी साथ दो तो जरा
नूर होता है क्या बेसबब सह गई
हादसों की तरह जिंदगी रह गई
होंठ कापें मगर धड़कने मौन थीं
आरजू अश्क में ढल गई बह गई
रूह से रूह का इक हंसी तबसरा
जिंदगी ऐ मेरी साथ दो तो जरा