कौमी एकता शायरी – हिंदू मुस्लिम एकता कविता, हिन्दू मुस्लिम दोस्ती शायरी, एकता शायरी
कौमी एकता शायरी – उड़ती बात के सभी चाहने वालों को मेरा नमस्कार। कुछ दिनों पहले कुछ सुधि पाठकों ने आग्रह किया था कि मैं कौमी एकता शायरी ज़रूर लिखूँ। आज मैं कुछ कौमी एकता शायरी आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। इन चार पंक्तियों की कौमी एकता शायरी में से कुछ शायरियाँ अगर आप सबको पसंद आईं तो मैं समझूँगा कि मेरा प्रयास सार्थक हुआ।
कौमी एकता शायरी
वो मंदिर मस्जिदों में फ़र्क़ करना, सीख जाते तो
तरीके तौर मुस्लिम हिंदुओं के, सीख जाते तो
हवा पानी उजाले अन्न खुश्बू, सब जुदा होती
हमारे देवता जो कौम मज़हब, सीख जाते तो।
अज़ानों से सुबह होती, यहाँ पर आरती से शाम
कोई ख़ुसरो को गाता है, कोई मीरा के गाये श्याम
जहां हो देश का झंडा, हरा और केशरी रंग का
उसे दुनियां में कहते हैं, हमारा प्यारा हिंदुस्तान।
नसों में दौड़ते खूँ का, ज़ुदा ना रंग रक्खा है
दिया रब ने वही नक्शा, वही हर अंग रक्खा है
वही सूरज वही मौसम, हवायें धूप पानी दीं
तो हमने सोचने का क्यों ज़ुदा, फिर ढंग रक्खा है।
हमें नेकी बनानी थी, मगर हम बद बना बैठे
कहीं मंदिर बना बैठे, कहीं मस्ज़िद बना बैठे
हदें इंसानियत की भूलकर, लड़ते रहे यूँ ही
हमें इंसा बनाने थे, मगर सरहद बना बैठे।
फिरे जो दरबदर हमने सदा ही, दी शरण उनको
अंधेरों के सताये, रौशनी की दी किरण उनको
कि हम भी क्या करें, तवियत ही हमने ऐसी पाई है
मोहब्बत उनको भी दी है, जिन्होंने दी चुभन हमको।
कि ये हैं क़ौम के विषधर, मसीहा बन के आते हैं
ये सौदागर हैं वहशत के, मोहब्बत बेच खाते हैं
इन्हें पहचान कर जूते हज़ारों, इनके मुँह मारो
ज़हर हिंदू मुसलमाँ का, यही बोते उगाते हैं।
तूँ अपने देश का न हो सका, किसका भला होगा
ना तेरी सरजमीं होगी, ना तेरा आसमाँ होगा
वतन की आबरू को, कौड़ियों में बेचने वाले
ना तू श्रीराम का होगा, ना तू अल्लाह का होगा।
हैं मुँह में बोल मीठे, पर छुरी बाजू में रखते हैं
हमारे बीच में रहकर, हमें ही डसने लगते हैं
चमन के नांग हैं सारे, इन्हें मतलब ना मज़हब से
अगर हम जाग जायें, दाँत इनके तोड़ सकते हैं।
आशा है कि कौमी एकता शायरी आप सबको पसंद आईं होंगीं। इस आर्टीकल के बारे में आपके बहुमूल्य प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।
Very nice sir
धन्यवाद लेखक महोदय। आभार
Very Good Poem
बहुत बहुत धन्यवाद आपका। आभार
Excelent
बहुत सुंदर ।।
Very nice